मंगलवार, 23 नवंबर 2010

शुरुआत तो करनी होगी

कोई भी सृजन बगैर दर्द का संभव नही है। हर सृजन को अगर हम गौर से देखे तो उसके पीछे पायेंगें आॅंसु खुन पसीना,दुख दर्द, पराजय निराशा से तर बतर एक सघन संर्घष का इतिहास।मगर ज्योंही सृजन की प्रक्रिया समाप्त होती हैं,नई सृष्टि की सुन्दरता,उसका नयापन, उसकी चमक को देखकर सभी आनन्द विभोर हो जाते है, तृप्त होते है।क्योकि सृष्टि तो फिर भी आसान है,मगर परवरिश ? कही ऐसा ना हो कि हम अपने शिशु के अल्हड़पन में, भोलेपन में ,शरारत भरी मुस्कान मे इतना खो जाए कि वातावरण मे भी व्यापत संास्कृतिक सड़न इसके शरीर मे विषैला प्रभाव संक्रमित कर दें और हम कहते रह जाए मेरा बच्चा कभी बिगड़ नही सकता। हमे ऐसी फास्ट फूड संस्कृति से बचना ही नही होगा बल्कि इसके लिए एक मुहिम एक जनजागरण अभियान का हिस्सा भी बनना पड़ेगा यह जानते हुए भी की ये कदम आसान नही शुरूआत तो करनी होगी।

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