शनिवार, 27 नवंबर 2010

तृष्णार्थ चेतन

आज सभी की जीवन अस्थिर हे, मानसिक उतावलापन चरम सीमा पर है,व्यस्तता घड़ी के सुई को परास्त करना चाहती हैं। ऐसा लगता है जैसे वे अंधेरे में कुछ ढूढंना चाहते है लेनि उन्हें वो मिल नही रहा है। चरम गरीबी में जो जी रहें ,दो जून की रोटी जुगाड़ने में उसका सारा दिन खप जाता हैं, एक ही चिन्ता उन्हें, पेट की, अस्तित्व रक्षा की। यह इतनी अनिश्चित हैं कि मन को अन्य चिंता में  ले जाना असंभव है। वे एक मानसिक बांझपन लिए जी रहे हैं, कम से कम जिन्हे दाल रोटी की चिंता नही उनका जीवन भी स्थिर नही हैं, शान्ति नही है, जीवन है पर उसका कोई अर्थ नही,जीवीत हैं,जीवित रहना पड़ेगा इसलिए कोई सुनिश्चत उद्ेश्य नही हैं। स्नेह ,मोह ममता,प्रेम प्रीति समस्त मानवीय मूल्य न जाने कहा खो गया है। पर इनकी जरूरत इंसान को कम नही, सिर्फ शरीर को भोजन मिलना ही काफी नही।तृष्णार्थ चेतन की भी प्यास बुझनी चाहीऐ और कमी है तो पेय की। अतः प्यास बुझाने के लिए बेझिझक गन्दे नाले के पानी का आकण्ठ पान चल रहा है। अस्थिर जीवन के अनिश्चित उतावलेपन का भुलने के लिए इन्सान को मजबूर किया जा रहा है।

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